जगन्नाथ रथयात्रा की 10 रोचक बातें, जानकर हैरान रह जाएंगे
Rath Yatra 12 july 2021: जगन्नाथ यात्रा का महत्व हिंदू धर्म में बेहद खास माना जाता है और इसका आयोजन किसी उत्सव के जैसा ही होता है। लेकिन पिछले साल से कोरोना की वजह से जगन्नाथ यात्रा के आयोजन का उत्सव काफी फीका पड़ चुका है। इस साल भी माना जा रहा है कि बिना किसी भीड़भाड़ के रथ यात्रा निकाली जाएगी।
हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ रथ यात्रा निकाली जाती है। इस साल रथ यात्रा का आयोजन 12 जुलाई सोमवार को होगा। माना जा रहा है कि इस बार भी भक्तों को इस रथ यात्रा में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाएगा। 9 दिनों तक चलने वाली इस रथ यात्रा में बाकी सभी धार्मिक रीति-रिवाजों और नियमों का पालन किया जाएगा। आइए आपको बताते हैं जगन्नाथ रथ यात्रा से जुड़ी रोचक बातें…
बलराम जी के रथ को तालध्वज कहते हैं और इसका रंग लाल और हरा होता है। बहन सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है और यह काले व नीले रंग का होता है। वहीं भगवान कृष्ण के रथ को गरुड़ध्वज कहते हैं और इसका रंग लाल व पीला होता है।
रथ की लकड़ी के लिए नीम के पेड़ का चयन किया जाता है। यह एक विशेष प्रकार की लकड़ी से बने होते हैं, जिसे दारु कहा जाता है। बाकायदा समिति का गठन करके शुभ वृक्षों का चयन किया जाता है और फिर उनसे रथ
बनाए
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बताते हैं कि रथ को बनाने में किसी प्रकार की कील या फिर अन्य कांटेदार चीजों का प्रयोग नहीं होता है। लकड़ा का चयन बसंत पंचमी तिथि से कर दिया जाता है और रथ का निर्माण अक्षय तृतीया के दिन से आरंभ होता है।
भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम जी तीनों की मूर्तियों में किसी के हाथ, पैर और पंजे नहीं होते हैं। इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा यह है कि प्राचीन काल में इन मूर्तियों को बनाने का काम विश्वकर्मा जी कर रहे थे। उनकी यह शर्त थी कि जब तक मूर्तियों को बनाने का काम पूरा नहीं हो जाएगा, तब तक उनके कक्ष में कोई भी प्रवेश नहीं करेगा। लेकिन राजा ने उनके कक्ष का दरवाजा खोल दिया तो विश्वकर्माजी ने मूर्तियों को बनाना बीच में ही छोड़ दिया। तब से मूर्तियां अधूरी की अधूरी रह गईं हैं तो आज भी ऐसी ही मूर्तियों की पूजा की जाती है।
जगन्नाथजी का रथ 16 पहियों से बना होता है और इसे बनाने में 332 टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसकी ऊंचाई 45 फीट रखी जाती है। इस रथ का आकार बाकी दोनों रथों से बड़ा होता है। इनके रथ पर हनुमानजी और नृसिंह भगवान के प्रतीक चिह्न अंकित रहते हैं।
भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम जी तीनों की मूर्तियों में किसी के हाथ, पैर और पंजे नहीं होते हैं। इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा यह है कि प्राचीन काल में इन मूर्तियों को बनाने का काम विश्वकर्मा जी कर रहे थे। उनकी यह शर्त थी कि जब तक मूर्तियों को बनाने का काम पूरा नहीं हो जाएगा, तब तक उनके कक्ष में कोई भी प्रवेश नहीं करेगा। लेकिन राजा ने उनके कक्ष का दरवाजा खोल दिया तो विश्वकर्माजी ने मूर्तियों को बनाना बीच में ही छोड़ दिया। तब से मूर्तियां अधूरी की अधूरी रह गईं हैं तो आज भी ऐसी ही मूर्तियों की पूजा की जाती है।
जगन्नाथजी का रथ 16 पहियों से बना होता है और इसे बनाने में 332 टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसकी ऊंचाई 45 फीट रखी जाती है। इस रथ का आकार बाकी दोनों रथों से बड़ा होता है। इनके रथ पर हनुमानजी और नृसिंह भगवान के प्रतीक चिह्न अंकित रहते हैं।
मूर्तियों को लेकर प्राचीन मान्यता यह चली आ रही है कि अनके निर्माण में अस्थियों का भी प्रयोग किया गया है। इनका निर्माण राजा नरेश इंद्रद्युम्न ने करवाया था। वह भगवान विष्णु के परम भक्त थे। मान्यता है कि राजा के सपने में आकर भगवान ने उन्हें मूर्तियों को बनाने का आदेश दिया था। सपने में उन्हें बताया कि श्रीकृष्ण नदी में समा गए हैं और उनके विलाप में बलराम व सुभद्रा भी नदी में समा गए हैं। उनके शवों की अस्थियां नदी में पड़ी हुई हैं। भगवान के आदेश को मानकर राजा ने तीनों की अस्थियां नदी से बटोरीं और मूर्तियों के निर्माण के वक्त प्रत्येक मूर्ति में थोड़ा-थोड़ा अंश रख दिया। जगन्नाथजी के मंदिर का निर्माण करीब 1000 साल पहले हुआ था और तब से हर 14 साल में यहां प्रतिमाएं बदल दी जाती हैं।
मंदिर के बारे में ऐसा माना जाता है कि यहां पर लगा ध्वज सदैव विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा माना जाता है कि यहां दिन के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम में इसके उलट दिशा में हवा बहती है। मगर मंदिर का ध्वज इसके ठीक विपरीत उल्टे दिशा में लहराता है, क्योंकि मंदिर में हवा दिन में समुद्र की ओर और रात में मंदिर की तरफ बहती है।
यहां मंदिर के ध्वज को रोजाना बदलने की परंपरा का पालन बरसों से किया जा रहा है। एक पुजारी रोजाना मंदिर की गुंबद पर चढ़कर ध्वज बदलता है। ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी यह ध्वज नहीं बदला गया तो मंदिर 18 साल के लिए बंद हो जाएगा।
रथ यात्रा पुरी के मंदिर से चलकर नगर भ्रमण करते हुए गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। यहां भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ 7 दिन तक विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर भगवान जगन्नाथजी की मौसी का घर कहलाता है।
मान्यता है कि रथ यात्रा के तीसरे दिन यानी आषाढ़ पंचमी को देवी लक्ष्मी जगन्नाथजी को ढूंढ़ते हुए यहां आती हैं। तब यहां पुजारी दरवाजा बंद कर देते हैं और देवी लक्ष्मी नाराज होकर रथ का पहिया तोड़कर वापस चली जाती हैं। बाद में फिर जगन्नाथजी उन्हें मनाने जाते हैं। उस वक्त यहां मना मनौव्वल संवाद का गान किया जाता है। जो कि सुनने में बेहद अनूठे लगते हैं।
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